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चक्रदेव की कथा
पश्चात् उसके कहने से लीलारति विद्याधर अपनी स्त्री सहित चपल कुंडल बनाता हुआ आकाश में उड़ता गया । यह दृश्य देखकर हाथी विचार करने लगा कि यह वास्तव में कामित तीर्थ है क्योंकि यहां से गिरा हुआ शुक का जोड़ा विद्याधर का जोड़ा बनगया है । इसलिये मुझे भी इस तियंचपन से क्या काम है ? ऐसा सोचकर पर्वत पर से उसने वहां पापात किया, इतने में शुक का जोड़ा वहां से उड़ गया ।
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इवर उक्त हाथी के अंगोपांग चूरचूर हो गये व उसे महा वेदना होने लगी, तथापि वह शुभ अध्यवसाय रखकर व्यंतर देवता हुआ | अतिशय क्लिष्ट परिणामी और विषयासक्त शुक मरकर प्रथम नारको के अत्यन्त दुस्सह दुःख से भरपूर लोहिताक्ष नामक नरकवास में गया ।
इसी बीच विदेह क्षेत्र में चक्रवाल नगर में अप्रतिहत चक्र नामक एक महान् सार्थवाह रहता था और उसकी सुमंगला नामक स्त्री थी । उक्त हाथी का जीव व्यंतर के भव से च्यवन करके . उनके घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम चक्रदेव रखा गया । वह सदैव अपने गुरु-जन की सेवा में तत्पर रहने लगा ।
उक्त शुक का जीव भी नारको में से निकलकर उसी नगर में सोम पुरोहित का यज्ञदेव नामक पुत्र हुआ । पश्चात् चक्रदेव व यज्ञदेव दोनों युवावस्था को प्राप्त हुए ।
उन दोनों में एक की शुद्ध भाव से और दूसरे को कपट भाव से मित्रता हो गई । पश्चात् पूर्वकृत कर्म के दोष से पुरोहित का पुत्र एक समय यह सोचने लगा कि- इस चक्रदेव को ऐसी अतुल लक्ष्मी के विस्तार से किस प्रकार भ्रष्ट करना । इस प्रकार सोचते २ उसे एक उपाय सूझा । उसने निश्चय किया कि चन्दन