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पापभीरु गुण पर
मैं तो कुछ भी निरर्थक पाप नहीं करूगा । यह सुन वह पथिक अपने बढ़ाये हुए शरीर को छोटा कर, अपना मूल दिव्य रूप प्रगट करके उससे यह कहने लगा। .
हे अत्यंत गुणशाली विमल ! तुझे धन्य है व तुही पुण्यशाली है, क्योंकि इन्द्र भी तेरी पाप भीरुता की प्रकटतः प्रशंसा करता है । इसलिये हे सावद्य वचन वर्जन-परायण, हे निश्चल ! हे उत्तम धर्मवान् ! वरदान मांग । तब विमल बोला कि-हे देव ! तू ने दर्शन दिये, इसी में सब कुछ दे दिया है। तथापि देव के आग्रह करने पर विमल ने कहा कि- हे भद्र ! तो तू तेरे मन को गुणोजन के गुण ग्रहण करने में तत्पर रख । __ इस तरह उसके बिलकुल निरीह रहने पर देव ने बलात् उसके उत्तरीय वस्त्र में सर्पविष-नाशक मणि बांध दी व पश्चात् वह स्वस्थान को चला गया। तब विमल ने सहदेव आदि को बुलाये । जिससे वे भी वहां आकर उक्त पथिक की बात पूछने लगे. तब उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया।
पश्चात् देव गुरु का स्मरण कर भोजन करके वे नगर में गये । इतने में वहां उन्होंने बाजार में दुकानदारों को जल्दी २ दूकानें बन्द करते देखे । तथा प्रबल चतुरंगी सैन्य मानों सब युद्ध के लिये तैयार हुआ हो, उस भांति इधर उधर दौड़ादौड़ करता हुआ, किले को साफ कराता हुआ देखा तथा किले के द्वार बंद होते देखे । ___ यह विलक्षण दौड़ा दौड़ देख कर विमल ने किसी से पूछा कि-हे भद्र ! यह सम्पूर्ण नगर ऐसा भयभ्रान्त कैसे हो रहा है ? तब उस पुरुष ने विमल के कान में कहा कि- यहां बलिराजा को कैद करने वाले श्रीकृष्ण के समान बली,