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सुजात की कथा
अकर्तव्य नहीं. अतएव इस सुजात को मारना चाहिये, सो भी इस प्रकार कि-जिससे लोगों में भी अपवाद न हो। इससे राजाने अपने कार्य के बहाने से उसे पत्र के साथ अररपुरी नगरी के चन्द्रध्वज राजा के पास भेजा।
चन्द्रध्वज राजा ने हुक्म देखा । परन्तु सुजात का रूप देख कर वह चित्तम विचार करने लगा कि ऐसे रूपवान पुरुष में ऐसा राज्यविरुद्ध कार्य घटित हो ही नहीं सकता. इसीलिये कहा है कि
" हाथ, पग, दांत, नाक, मुख, ओष्ठ और कटाक्ष ये जिसके कुछ टेड़े या सीधे हो तो वह मनुष्य स्वयं भी वैसा ही टेड़ा सीधा निकलता है। जो बिलकुल टेड़े हो। तो वह भी बिलकुल टेड़ा
और सीधे होवें तो सीधा निकलता है। ___ अब चन्द्रध्वज ने अन्य सब को विदा किया व सुजात को (एकान्त में) सब बात कहकर राजा का पत्र बताया। तब सुजात बोला कि-हे नरवर ! तुझे जिस प्रकार तेरे स्वामी की आज्ञा है वसा ही कर । तब चन्द्रध्वज बोला कि तुझ पर प्रसन्न होकर मैं तुझे मारता नहीं, अतएव तू पुण्य व कोति को क्षीण किये बिना गुप्त रीति से यहां रह । यह कह कर उसने चन्द्रयशा नामक अपनी भगिनी जो कि त्वचा के दोष से कोढ़ रोग से दूषित हो रही थी। उसका बड़े हर्ष के साथ उससे विवाह कर दिया। ___ वह चन्द्रयशा सुजात की संगति से दुष्ट कुष्ठ रोग से पीड़ित होते हुए भी उत्तम संवेग से रंगित होकर श्रावक-धर्म में निश्चल हो गई । उसने अनशन ग्रहण किया और सुजात उसकी निर्यापना करने लगा। इस प्रकार वह मृत्यु पाकर सौधर्म-देवलोक में देदीप्यमान शरीर-धारी देवता हुई।