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रूपवंत गुण का वर्णन
अर्थ-संपूर्ण अंगोपांगयुक्त, पंचेन्द्रियों से सुन्दर व सुसंहनन वाला हो वह रूपवान माना जाता है, वैसा पुरुष वीरशासन की शोभा का कारण भूत होता है और धर्म पालन करने में भी समर्थ रहता है। सम्पूणे याने अन्यून हैं अंग याने मस्तक, उदर आदि और उपांग याने अंगुलियां आदि जिसके वे संपूर्णांगोपांग कहलाते हैं। सारांश कि-अखंडित अंगवाला । पंचेन्द्रिय सुन्दर याने कि-काना, क्षीणस्वर, बहिरा, गूगा न होते हुए पंचेन्द्रियों से सुशोभित । सुसंहनन याने शोभन संहनन कहते शरीर बल है जिसका उसे सुसंहनन जानो । तथा यह न समझना कि प्रथम संहनन वाला ही धर्म पाता है, क्योंकि बाकी के संहननों में भी धर्म प्राप्त किया जा सकता है। जिसके लिये कहा है किः
“ सर्व संस्थान और सर्व संहननों में धर्म पा सकता है."
सुसंहनन वाला होवे तो वह तपसंयमादिक अनुष्ठान करने में समर्थ रह सकता है ऐसा यह विशेषण देने का अभिप्राय है। ऐसा पुरुष धर्म अंगीकृत करे तो क्या फल होता है सो कहते हैं। ऐसा पुरुष प्रभावना का हेतु याने तीर्थ की उन्नति का कारण होता है, वैसे ही रूपवान पुरुष धर्म में याने कि धर्म करने के विषय में समर्थ हो सकता है, कारण कि-वह संपूर्णाग से सामर्थ्ययुक्त होता है । इस जगह सुजात का दृष्टान्त बताऊंगा। _ नंदिषेण और हरिकेशिवल आदि तो कुरूपवान् थे तो भी उन्होंने धर्म पाया है यह कह कर रूपवानपने का व्यभिचार न बताना चाहिये क्योंकि वे भी संपूर्ण अंगोपांगदिक से युक्त होने से रूपवान ही गिने जाते हैं, और यह बात भी प्रायिक है, कारण कि अन्य गुण का सद्भाव हो तो फिर कुरूपपन अथवा अन्य किसी गुण का अभाव हो उससे कुछ दोष नहीं आता। इसी से आगे मूल ग्रंथकार ही कहने वाले हैं किः