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अक्षुद्र गुण का वर्णन
( प्रथम गुण )
आठवीं गाथा का अवतरण करते हुए अब सूत्रकार स्वयं ही भावार्थ का वर्णन करने को इच्छुक होकर अक्षुद्र यह प्रथम गुण प्रकटतः बताते हैं ।
खुदो त्ति अगंभीरो, उत्ताणमई न साहए धम्मं । सपरोवयारसत्तो, अक्खुद्दो तेण इह जुग्गो ॥ ८ ॥
अर्थ - क्षुद्र याने अगंभीर अर्थात् उद्धत बुद्धिवाला जो होवे वह धर्म को साधना नहीं कर सकता, अतएव जो स्वपर का उपकार करने को समर्थ रहे वह अक्षुद्र अर्थात् गंभोर हो उसे यहां योग्य
जानना.
यद्यपि क्षुद्रशब्द क्रूर, दरिद्र, लघु आदि अर्थों में उपयोग किया जाता है तथापि यहां क्षुद्र शब्द से अगंभीर कहा है- वह तुच्छ होने से उचानमति याने तुच्छ बुद्धिवाला होता है जिससे वह भीम के समान धर्म साधन नहीं कर सकता, कारण कि धर्म तो सूक्ष्म बुद्धि वालों ही से साधन किया जा सकता है, जिसके लिये कहा है किः
सूक्ष्मबुद्धया सदा ज्ञेयो धर्मो धर्मार्थभिर्नरैः । अन्यथा धर्मबुद्धयैव तद्विधातः प्रसज्यते ॥१॥
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धर्मार्थ मनुष्यों ने सदैव सूक्ष्मबुद्धि द्वारा धर्म को जानना चाहिये, अन्यथा धर्मबुद्धि ही से उलटा धर्म का विघात हो जाता है ।
जैसे कोई कम बुद्धिवाला पुरुष रोगी को औषधि देने का अभिग्रह ले, रोगी के नहीं मिलने पर अन्त में वह शोक करने लगता है. कि
अरे ! मैंने उत्तम अभिग्रह लिया था, परन्तु कोई रोगी नहीं हुआ, इससे मैं अधन्य हूँ कि मेरा अभिग्रह सफल नहीं हुआ ।