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परहितार्थकारिता गुण पर
है और संसार रूपी वृक्ष के मूल समान है इसलिये कौन चतुर मनुष्य उनको भोगता है।
विषयों का सेवन करने से वे शान्त न होकर उलटे बढ़ते हैं जैसे कि-पामर जनों की पामा हाथ से खुजालने से उलटी बढ़ती है। ___ कहा भी है कि-काम उसके उपभोग से कदापि शान्त नहीं होता वह तो घृत के होम से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे बढ़ा ही करता है । इस लिये हे भव भीरु ! लाखों दुःखों की हेतु इस विषयगृद्धि को तू छोड़ दे और श्री जिनेश्वर तथा उनके बताने वाले (गुरु) की भक्ति कर ।
उसके इस प्रकार के वचनामृत से यक्षिणी का विषय संताप शांत हुआ। जिससे वह हस्त कमल जोड़कर, कुमार को इस भांति कहने लगी। हे स्वामिन् ! आपके प्रसाद से मुझे परभव में उत्तम पद मिलना सुलभ हुआ है, क्योंकि मैं सकल दुःख के कारण भूत भोगों को सम्यक प्रकार से त्याग करने को समर्थ हो गई हूँ । जैसे पीजरे में रखे हुए शुक पर राग रहता है, वैसे ही तुझ में मेरा मजबूत भक्तिराग हो और जो तुझे भी सदा पूज्य हैं, वे जिनेश्वर मेरे देव हो।
' इस प्रकार वह महान भक्तिशालिनी देवी ज्यों ही कुछ कहने लगी उतने में कुछ मधुर ध्वनि सुन कुमार उसे पूछने लगा। अति मनोहर बंध समृद्ध शुद्ध सिद्धान्त के वचनों द्वारा यहां ऐसा उत्तम स्वाध्याय कौन करता है ? तब वह बोली हे स्वामिन् ! इस पर्वत में चातुर्मास के पारणे से आहार करने वाले महा मुनि रहते हैं । वे स्वाध्याय करते हैं जिससे उनका यह मधुर शब्द सुनाई देता