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________________ भीमकुमार की कथा २६५ विदीर्ण करता है उस भांति विदीर्ण करने लगा। तब वह योगी सूड में गिरगट घुस जाने से चिल्लाते हुए हाथी के समान रोने लगा। तब जैसे तैसे योगी ने कुमार को अपने हाथों द्वारा कान से बाहर निकाला और उसके पैर पकड़ कर उसे गेंद के समान आकाश में उछाला । उसके आकाश में से गिरते २ दैव योग से एक यक्षिणी ने उसे अधर झेल लिया और उसे अपने कर कमल के संपुट में धारण कर वह उसे अपने भवन में ले गई । वहां उसने उसको मणिमय सिंहासन पर बैठाया । यह देख वह विस्मित होकर विचार करने लगा कि-यह क्या बात है। इतने में वह यक्षिणी उसके संमुख प्रकट होकर हाथ जोड़ कर उसको कहने लगी कि-हे भद्र ! यह विध्य पर्वत है और उसी के नाम से यह वन है याने विंध्यवन है । विंध्य पर्वत की गुफा के अन्दर यह अतिसंगत देवगृह है, और मैं यहां इसकी मालिक कमलाक्षा नामक यक्षिणी हूँ। आज मैं अष्टापद से लौट कर वापस आई हूँ (मार्ग में ) कापालिक के तुझे ऊचा फेकने से आकाश में से गिरता हुआ देख कर तुझे अधर मेल, लेकर यहां आई हूँ। अब मैं असहा काम के तीक्ष्ण बाण के प्रहार से विव्हल हो रही हूँ और तेरी शरण में आई हूँ, इस लिये हे भद्र ! मुझे तू उससे बचा। तब वह हंसकर बोला कि-हे चतुर यक्षिणी ! ये विषय चतुर जनों के लिये निंदनीय है । वमन की हुई मदिरा के समान है, वमन किये पित्त के समान है, तुच्छ है अनित्य है नरक नगर को जाने के सरल मार्ग समान है बहुत ही कष्ट साध्य है अन्त में धोखा देकर रुलाने वाले है । लाखों दुःख जनक है देखने ही में मधुर लगते हैं किन्तु परिणाम में विष के समान भयंकर
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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