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कृतज्ञता गुण पर.
वे दोनों जने परस्पर प्रणामादिक करके बाहिर की मणिपीठिका पर हर्षित होकर बैठे । व शरीर संबंधी सुख शान्ति पूछ कर विद्याधरेन्द्र बोला कि - हे महाभाग ! मुझे इतना काल विलम्ब क्यों हुवा जिसका कारण सुन ।
नगर गया
उस समय तेरे पास से रवाना होकर मैं अपने व माता पिता के चरणों को नमा, तो उन्होंने आंख में हर्ष के अश्रु लाकर आशीष दी। पश्चात् वह दिन व्यतीत होने पर रात्रि को मैं देव गुरु का स्मरण कर शय्या में सो रहा था, तो द्रव्य से निद्रा आ गई किन्तु भाव से नहीं। नींद में मैंने सुना कि मानो कोई मुझे कहता है कि हे जिनेश्वर के भक्त उठ ! उठ ! यह सुन कर मैं जाग कर देखने लगा तो रोहिणी आदि विद्याएं मेरे सन्मुख खड़ी नजर आई ।
वे बोली कि तेरी धर्म में बढ़ता देख हम प्रसन्न हो तेरे पुण्य से प्रेरित होकर तुझे सिद्ध हुई हैं। यह कह कर उन्होंने मेरे शरीर में प्रवेश किया। तब सर्व विद्याधरों ने मुझे विद्याधर चक्रवर्ती का अभिषेक किया । जिससे नवीन राज्य स्थापन करने में इतने दिवस व्यतीत हुए हैं
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इतने में तेरी आयसु मुझे याद आई जिससे मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया । तब एक स्थान में मैंने अनेक शिष्यों के परिवार सहित बुधसूरि को देखा। उनको मैंने तेरा सर्व वृत्तान्त कहा । जिससे तुझ पर अनुग्रह करके वे प्रभु शीघ्र ही यहां आते हैं। इस कारण से हे कुमार ! मुझे काल विलम्ब हुआ है । इस प्रकार वह विद्याधर कह हो रहा था कि इतने में वे भगवान आ पहुँचे ।