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विमलकुमार की कथा
को सूर्य ही शरण है । हे त्रिभुवन के प्रभु ! अमृत के समान आपके प्रवचन का परिणमन करने से लघुकर्मी जीव थोड़े ही समय में अजरामर पद प्राप्त करते हैं । हे श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन युक्त देव ! पानी से जिस प्रकार वस्त्र का मैल घुलता है वैसे ही द्रव्य तथा भाव से आपके दर्शन करने से प्राणियों का पाप रूप मैल नष्ट हो जाता है ।
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हे स्वामिन् ! आपका स्मरण करने से क्लिष्ट कर्मों जीव भी सिद्ध हो जाता है, क्योंकि रसायन के स्पर्श से क्या लोहा भी सुवर्णत्व नहीं पाता ? हे प्रभु! आपके गुणों का स्तवन करने से निर्मल चित्त वाले भव्य प्राणियों के पाप गलते हैं । जैसे कि बरसात के पानी से जामुन के फल गल जाते हैं । हे त्रिजगदीश ! मेरे नेत्र आपके दर्शन के लिये आतुर हैं और मेरा भाल आपको नमन करने के लिये उद्यत है, इसलिये आप शीघ्र ही प्रत्यक्ष होइये । हे देवेंद्र - समूह वन्दित युगादि जिनेश्वर ! मैं आपकी इस प्रकार स्तुति करता हूँ, इससे भवोभव आपके चरणों की अविचल भक्ति दीजिये ।
इस प्रकार धवलराजा के कुमार ने चन्द्र के समान निर्मल लेश्यावान् होकर आदीश्वर की स्तुति करके पंचाङ्ग नमस्कार किया । इतने में उसी समय वहां बहुत से विद्याधरों सहित रत्नचूड़ आ पहुँचा। उसने विमल की करी हुई स्तुति सुनी । जिससे वह हर्षित होकर इस प्रकार बोला
हे सत्पुरुष ! तू ने बहुत ही श्रेषु किया । तेरे संसार समुद्र का अंत आ गया है कि - जिससे चित्त में जिनेश्वर के ऊपर ऐसी निष्कलंक भक्ति उल्लसित हो रही है । पश्चात् देव को नमन करके