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मध्यमबुद्धि की कथा
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कहा है कि-विपत्ति में साहस रखना, महापुरुषों के मार्ग का अनुसरण करना न्याय से वृत्ति प्राप्त करना, प्राण जाते भी दुष्कार्य न करना, असत् पुरुषों की प्रार्थना नहीं करना, तब थोड़े धन वाले मित्र से भी याचना नहीं करना । इस प्रकार से तलवार की धार समान विषम व्रत पालने के लिये सज्जनों को किसने दरशाया है ? ( अर्थात् वे सहज स्वभाव ही से यह व्रत पालते हैं। ) किन्तु आज से मैं भी कुछ धन्य हूँ कि-जिससे अब मैं भी तेरे समान वृद्धानुसारी हुआ हूँ।
वृद्धानुगामी पुरुषों का जैसे राग द्वष मंद पड़ता है वैसे कामाग्नि भी शान्त होती है और उनका मन निरंतर प्रसन्न रहता है । वृद्धानुगामिता माता के तुल्य हितकारिणी है । दीपिका के तुल्य परमार्थ प्रदर्शिनी है और गुरु वाणी के तुल्य सन्मार्ग में ले जाने वाली है।
कदाचित् दैवयोग से माता विकृति को प्रात हो जाय परन्तु यह वृद्ध सेवा कदापि विकृत नहीं होती । वृद्ध-वाक्यरूप अमृत के समान झरने से सुन्दर मन रूप मानस सरोवर में ज्ञानरूप राजहंस भली भांति निवास करता है। जो मंदबुद्धि वृद्धमंडली की उपासना किये बिना ही तत्व जानना चाहते हैं, वह मानों किरणे पकड़कर उड़ना चाहते हैं।
वृद्धों के उपदेश रूप सूर्य को पाकर जिसका मन रूपी कमल विकसित नहीं हुआ, वहां गुण लक्ष्मी कैसे निवास कर सकती है ? जिसने अपनी आत्मा को वृद्ध वाणी रूप पानी से प्रक्षालन नहीं किया, उस रंकजन का पाप-पंक किस भांति दूर हो ?
वृद्धानुगामी पुरुषों को हथेली पर संपदा रहती है क्योंकि, क्या कल्पवृक्ष पर चढ़े हुए को भी कभी फल प्राप्ति में बाधा आ