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वृद्धानुगत्व गुण पर
इस भव में समुद्र की तरंगों के समान सब कुछ अनित्य ही है। अतः कहो कि- भला, विवेकी जनों को किसी स्थान में आस्था धारण करना योग्य है ?
यह सुन शुभाचार नामक पुत्र को राज्य में स्थापन कर, ऋजु राजा अपनी स्त्री, पुत्र तथा पुत्रवधू सहित प्रव्रजित हो गया। तब वे काले वर्ण वाले दोनों बालक शीघ्र ही भाग गये.
और श्वेत वर्ण वाले बालक ने झट पुनः उनके शरीर में प्रवेश किया । तब देवी सहित देव ने विचार किया कि, देखो! इनको धन्य है कि जिन्होंने अहेत प्रणीत दीक्षा ग्रहण की है। __ हम तो इस व्यर्थ देव भव को पाकर ठगा गये हैं, किन्तु अब सम्यक्त्व पाकर के हम भी धन्य ही हैं। पश्चात् वे देवदंपती हर्ष से सूरिजी के चरणों में नमकर उनकी शिक्षा स्वीकार कर अपने स्वस्थान को गये।
इस प्रकार हे पुत्र ! मैं ने तुझे दो जोड़ों की बात कही, इसलिये संदिग्ध बात में कालविलंब करने से लाभ होता है। तब मध्यमबुद्धि बोले कि-हे माता ! जैसा आप कहती हो वैसा ही करने को मैं उद्यत हूँ। यह कह कर उसने हर्ष से माता का वचन स्वीकार किया।
अब उधर बाल कुमार अपने स्पर्शन मित्र तथा अकुशलमाला माता के वश में हो अकृत्य करने में अतिशय फंस गया । वह ढेड़ और चांडाल जातियों की स्त्रियों तक में अति लुब्ध हो कर निरन्तर व्यभिचार करने लगा। तब लोग उसकी निन्दा करने लगे कि-यह निर्लज्ज व पापिष्ट अपने कुल को कलंकित करता है, तो भी यह पाप से निवृत्त नहीं होता । अब लोगों में उसकी इस प्रकार निंदा होती देख कर स्नेह से विह्वल मन