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मध्यमबुद्धि की कथा
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जीता है । यह सुन वह जरा लजित हुई । उसे वह कदलीगृह में ले गया इसी प्रकार विचक्षणा भी शीघ्र अकुटिला का रूप धर मुग्ध को भुलाकर उसी कदलीगृह में ले आई । यह देख मुग्ध बुद्धि अनेक तक वितके करने लगा तथा अकुटिल आशय वाली अकुटिला भी विस्मित हो गई।
अब देव सोचने लगा कि-यह स्त्री कौन है ? हां, यह मेरी ही स्त्री है । इसलिये परस्त्री पर आसंग करने वाले इस
SIC पास करनाल पुरुषाधम को मार डालू और स्वेच्छाचारिणी मेरी स्त्री को भी खूब पीड़ित करू, कि जिससे वह पुनः कोई दूसरे पुरुष पर दृष्टि भी न डाले । अथवा मैं स्वयं भी सदाचार से भ्रष्ट हुआ हूँ। अतएव ऐसा काम करना उचित नहीं । इसलिये कालक्षेप करना उत्तम है।
इसी प्रकार विचक्षणा भी विचार करके कालक्षेप में तत्पर हुई। पश्चात् थोड़ी देर क्रीड़ा करके चारों घर आये । यह देखकर रानी सहित राजा प्रसन्न होकर बोला कि-अहो ! बनदेवी ने हर्षित होकर मेरे पुत्र व पुत्र-वधू को दूने कर दिये । जिससे उसने सारे नगर में महोत्सव कराया। इस प्रकार उन चारों का कुछ समय व्यतीत हुआ।
उक्त नगर में मोहविलय नामक वन में प्रबोधक नामक ज्ञानवान् आचार्य पधारे । तब राजा आदि लोग उन मुनीश्वर को वन्दना करने गये । उन्हें सूरिजी ने निम्नांकित उपदेश दिया ।
काम शल्य समान है । काम आशीविष समान है । कामेच्छु जीव अकाम रहते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होता है गुरु का यह वचन सुनते ही उक्त देव व देवी का मोहजाल नष्ट हुआ और उनको सम्यक्त्व की वासना प्राप्त हुई ।