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________________ १७६ दीर्घदर्शित्व गुण पर यही इच्छा करता हूँ। ऐसे बोलते हुए कुमार को फिर भगवान ने स्थविरों के सुपुर्द किया । उनके पास उसने तपश्चरण में लीन रहकर ग्यारह अंग सीखे । पश्चात् वह चिरकाल व्रत पालन कर, एक मास की संलेखना कर, आलोचना कर व प्रतिक्रमण करके सौधर्म देवलोक में श्रेष्ठ देव हुआ। वहां सुख-भोग भोग कर, आयु क्षय होने पर वहां से च्यवकर उत्तम कुल में जन्म ले, गृही-धर्म पालन कर, प्रव्रज्या धारण कर सनत्कुमार देवलोक में वह जावेगा । इस प्रकार ब्रह्म देवलोक में, शुक्र देवलोक में, आनत देवलोक में और अंत में सर्वार्थसिद्धि विमान में ऐसे देवता और मनुष्य के मिलकर चउदह भवों में वह उत्तम भोग भोग कर महाविदेह में मनुष्य जन्म लेगा। वहां प्रवज्या ले, कर्म क्षय कर, केवली होकर वह भद्रनंदी कुमार अनंत सुख पावेगा । इस प्रकार सुपक्ष युक्त भद्रनंदी कुमार ने निर्विघ्नता से विशुद्ध धर्म आराधन कर स्वर्गादिक में सुख पाया । इसलिये श्रावक को सुपक्ष रूप गुण की सदैव आवश्यकता है। ___ इस प्रकार भद्रनंदी कुमार का उदाहरण समाप्त हुआ। चौदहवां गुण कहा, अब पन्द्रहवां दीर्घदर्शित्व रूप गुण कहते हैं। आढवइ दोहदंसी-सयलं परिणामसुदरं कर्ज। बहुलाभमप्पकेसं-सलाहणिज बहुजणाणं ॥ २२ ॥ अर्थ-दीर्घदर्शी पुरुष जो जो काम परिणाम में सुन्दर हो, विशेष लाभ व स्वल्पः क्लेश वाला हो और बहुत लोगों के प्रशंसा के योग्य हो, वही काम प्रारम्भ करता है। प्रारंभ करता
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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