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भद्रनन्दीकुमार की कथा
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अब कुमार कल्पवृक्ष के समान याचकों को दक्षिण हाथ से दान देने लगा। सब कोई अंजलि बांधकर उसे प्रणाम करने लगे तथा मार्ग में वह सहस्रों अंगुलियों से परिचित होने लगा। सहस्रों आंखों से देखा गया। सहस्रों हृदयों से अधिकाधिक चाहा गया और सहस्रों वचनों से वह प्रशंसित होने लगा। इस प्रकार वह समवसरण तक आ पहुँचा ।
वहां आ, पालखी से उतर, भक्तिपूर्वक जिनेश्वर के समीप जा, तीन प्रदिक्षणा दे, परिवार सहित कुमार वीर प्रभु को वन्दना करने लगा। उसके माता पिता भगवान को वन्दना करके कहने लगे कि- यह हमारा इकलौता प्रिय पुत्र है। यह जन्म, जरा व मरण से भयभीत होकर आपके पास निष्क्रांत होना चाहता है। अतः हम आपको यह सचित्त भिक्षा देते हैं । हे पूज्यवर ! अनुग्रह करके उसे ग्रहण करिये। ___ भगवान बोले कि- प्रसन्नता से दो । तत्पश्चात् भद्रनंदी कुमार ने ईशान कोण में जा, अपने हाथ से अलंकार उतार कर पांच मुष्टि से अपने केश लु'चित किये। उन केशों को उसकी माता अश्रु टपकाती हुई हंसगर्भ वस्त्र में ग्रहण करने लगी।
माता बोली कि- हे पुत्र ! इस विषय में अब तूप्रमाद मत करना । यह कहकर माता पिता अपने स्थान को आये और कुमार भी जिनेन्द्र के सन्मुख जाकर कहने लगा कि- हे भगवन् ! इस जरा व मरण द्वारा जले बले हुए लोक में उसको नाश करने वालो भगवती दीक्षा मुझे दीजिये। ... तब जिनेवर ने उसे विधिपूर्वक दीक्षा दी व स्वमुख से उसे शिक्षा दी कि- हे वत्स ! तू यत्न पूर्वक सकल. क्रियाएँ करना ।