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भद्रनन्दीकुमार की कथा
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सम्यक् रीति से समाहित होकर वह श्रमण होवेगा । तदनन्तर भगवान ने अन्यत्र विहार किया, और कुमार अनुकूल, विनीत व धर्मशील परिवार युक्त होकर श्रावक धर्म का पालन करने लगा।
एक समय उसने अष्टमी आदि पर्व दिवसों में पौषध शाला । में जा उच्चार प्रश्रवण को भूमियों को देख, प्रमार्जनकर, दर्भ का आसन बिछा, उस पर बैठकर अष्टम भक्तवाला पौषध किया। उक्त अष्टम पौषध के पूरा होने को आने पर जिनपदभक्त कुमार पिछली रात्रि को यह विचारने लगा।
उन ग्रामों और नगरों को धन्य है, उन खेड़ों खंखाड़ों व मंडप प्रदेशों को धन्य है कि जहां मिथ्यात्वरूप अंधकार को हरण करने में सूर्य समान वीर भगवान विचरते हैं । और जो उक्त भगवान का उपदेश सुनकर चारित्र ग्रहण करते हैं । उन राजाओं राजकुमारों आदि को धन्य है । यदि वे ही त्रैलोक्य बंधु वीर प्रभु यहां पधार तो मैं उनसे मनोहर संयम ग्रहण करु । उसका यह अभिप्राय जानकर वीर प्रभु भी प्रातःकाल होते ही वहां पधारे। तब भद्रनंदी के साथ राजा वहां आया । वे राजा व कुमार जिन प्रभु को नमन करके उचित स्थान पर बैठ गये। तब वीर प्रभु नवोन मेघ की गर्जना के समान गंभीर स्वर से इस प्रकार उपदेश करने लगे। __ हे भव्यो ! इस संसार रूप रहट में अविरतिरूप घड़ों से कर्म जल ग्रहण करके चतुर्गति दुःख रूप विषवल्ली को जीव रूपी मंडप पर चढ़ाने के लिये सिंचन मत करो। ___ यह सुन राजा अपने गृह को आया, और कुमार ने भगवान से जाकर कहा कि- हे स्वामी ! मैं माता पिता को पूछकर दीक्षा