________________
१५४
गुणरागित्व गुण पर
नरनाथ ! इस संसार में नारकादिक भवों का चक्कर लेना पड़ता है जिससे इस संसार को भवावर्त्त नगर कहा है। कर्म परिणति नाम का राजा कालपरिणति नामकी रानी सहित सकल जीवों का पिता है । इससे यह सब जीव सहोदर हैं । इस भवावर्त नगर में वैसे अनन्तों जीव बसते हैं। उन सबको एक ही सपे ने इस प्रकार डसा है।
आठ मदरूप आठ फणवाला, दृढ कुवासनाओं से काले वर्णवाला, रति अरति रूप चपल जीभ वाला, ज्ञानावरणादिरूप बच्चों वाला, कोप रूप महान् विष कंटक से विकराल, राग द्वेष रूप दो नेत्र वाला, माया और गृद्धिरूप लम्बी विष पूर्ण दाढ वाला, मिथ्यात्वरूप कठोर हृदय वाला, हास्यादिरूपश्वेत दांत वाला, चित्त रूप बिल में निवास करने वाला, भयंकर मोह नामक महा सर्प अखिल त्रिभुवन को डस रहा है।
उसके डसे हुए जीव मूर्छित की भांति कर्तव्य नहीं समझ सकते और क्षणिक सुख में मुग्ध होकर आंखे मींच लेते हैं । उनके अंग इतने जड़ हो जाते हैं कि उनको नौकर चाकर हिलाते डुलाते हैं। उनकी मति इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि- वे देव व गुरु को नहीं पहिचान सकते हैं । क्या मुझे करना चाहिये और क्या न करना चाहिये तथा मैं कौन हूँ ? आदि वे नहीं जान सकते, इसी भांति गुरु की बताई हुई हित शिक्षा को भी वे सुन नहीं सकते । वे सम विषम कुछ भी नहीं जान देख सकते, वैसे ही अपने गुरुजनों को उचित प्रतिपत्ति भी कर नहीं सकते तथा गूगे (मूक) की भांति दूसरों को बोलाते भी नहीं।
इन जीवों में जो अति तीव्र विष से आहत हुए हैं वे निश्चेष्ट एकेन्द्रिय हैं, दूसरे अन्यक्त शब्द करके जमीन पर लौटते हैं, वे