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पुरन्दरराजा की कथा
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में क्षणभर भी प्रमादी नहीं होना और मेरे बताये हुए मंत्र का निरन्तर जप करना । ऐसा करने से पूर्वोक्त वित्र विकार दूर होते हैं । निर्मल बुद्धि प्रकट होती है । विशेष क्या कहूँ परंपरा से परमानन्द पद प्राप्त हो सकता है ।
हे महाराजन् ! उसका यह वचन कितनेक विष विवश लोगों ने तो सुना ही नहीं। कितनेकों ने सुना उनमें से भी बहुत से तो हँसने लगे। कितनेक अधीर हो गये । कितनेक निन्दा करने लगे। कितनेक दुर्विदग्ध होकर स्वकल्पित अनेक कुयुक्तियों से उसका खंडन करने लगे। कितनेक उसे स्वीकार करने में रुके । कितनेकों ने स्वीकार किया किन्तु उसके अनुसार करने को असमर्थ हुए । केवल थोड़े से लघुकर्मी महाभाग पुरुष ही उसे स्वीकार करके पालने लगे। उसी समय हे राजेन्द्र ! मैंने भी सर्प विष से पीड़ित होकर अमृत के समान उसका वचन अंगीकार किया है । उसका दिया हुआ वेष धारण किया है, और यह अति दुष्कर क्रिया करने लगा हूँ । यही मेरे व्रत ग्रहण करने का कारण है।
यह सुन इस बात का परमार्थ न समझने से राजा ने पुनः मुनीन्द्र से पूछा कि, हे भगवन् ! वह इतना महान् नगर सहोदर भाइयों से किस प्रकार बसा होगा ? और इतनों को एक ही सर्प ने किस प्रकार डसा होगा? और उन सब का विष उतारने में वह अकेला गारुडिक किस प्रकार समर्थ हो सकता है ? तथा उसने विष उतारने की ऐसी विधि क्यों बताई ? __ तब गुरु बोलेः-हे राजेन्द्र ! यह कोई बाहिरी अर्थवाला वचन नहीं, किन्तु भव्यजनों को वैराग्य उपजाने के हेतु समस्त अन्तरंग भावार्थ वाला वचन है । वह इस प्रकार है किः-हे