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पुरन्दरराजा की कथा
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विकलेन्द्रिय हैं । हे राजन् ! शास्त्र युक्ति से असंज्ञियों की चेष्टाएं शून्य समान हैं वैसे ही दाहादिक दुःख की पीड़ा, सो नारकीय जन्तुओं को है. क्योंकि उनको अशान्ति नामक लघु सर्प का अति भयंकर.देश लगा हुआ है। इस भांति सब जगह विशेष भावार्थ जानो । अव्यक्त रोने वाले हाथी, ऊट इत्यादि जानो और स्खलनादिक पाने वाले मनुष्य जानो । जागते हैं सो कम विष चढ़ने से विरति को अंगीकृत करने वाले जानो । पुनः विष चढ़ने से ऊंघते हैं वे विरति से पीछे भ्रष्ट होने वाले जानो । सदा सोते ही रहने वाले अविरतिरूप निद्रा में पड़े हुए देवता जानो । इस प्रकार सकल जन मोह रूपी सर्प के विष से विधुर हो रहे हैं । उनके सन्मुख जिनेश्वर भगवान को गारुडिक जानो। ___उनको उपदेश की हुई यतिजन को करने योग्य क्रिया में सदा अप्रमादी रहकर जो सिद्धान्त रूप मंत्र का जप किया जावे तो सब विष उतर जाता है. इसलिये वह भव्यजनों का निष्कारण बंधु और परम करुणासागर भगवान् एक होते हुए भी समस्त त्रिभुवन का विष उतारने को समर्थ है।
यह सुन राजा अपूर्व संवेग प्राप्तकर मस्तक पर हाथ जोड़ प्रणाम करके उक्त मुनीन्द्र को कहने लगा कि- हे मुनिपुगव ! आपकी बात वास्तव में सत्य है। हम भी मोह विष से अतिशय घिरकर अभी तक अपना कुछ भी हित जान नहीं सके । पर अब राज्य की सुव्यवस्था करके मैं आपसे व्रत लूगा । गुरु बोले किहे नरेन्द्र ! इसमें क्षणभर भी प्रमाद न कर। __ तब पुरन्दर कुमार को राज्य देकर विजयसेन राजा, कमलमाला रानी तथा सामन्त और मंत्री आदि के साथ दीक्षित हुआ। मालती रानी ने भी गुरु को अपना दुश्चरित्र बताकर कर्म