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पुरन्दरराजा की कथा
वहां उसने हृदय से निकाल कर मसल डालते हुए रागरूप रस ही से मानो रंगे हों ऐसे सिंदूर के समान रक्त हाथ, पैर से सुशोभित, नगर द्वार को अर्गलाओं के समान लम्बी भुजावाले, मेरुशिला के समान विशाल वक्षस्थल वाले तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान मुख वाले मुनिश्वर को देखे ।
चरण
में
तब हाथी पर से उतर चामरादिक चिन्ह दूरकर गुरु नमन कर हर्षित हो राजा इस प्रकार बोला । हे भगवन् ! आपने ऐसा रूप व लावण्य होते हुए व इससे आप राज्यसुख भोगने के योग्य होते हुए ऐसा महादुष्कर व्रत क्यों ग्रहण किया है ।
तब जगत् का एकान्त हित चाहने वाले आचार्य बोले कि, हे राजन् ! तू शान्त मन से सुन ! यहां सुजन के हृदय के समान अति विस्तृत भावर्त नामक नगर है । उसमें मैं सांसारिक जीव नामका कुटुम्बी था । उस नगर में सब मेरे सहोदर भाई ही बसते है । वहां रहने वाले हम सब को एक तीव्र विष वाले और नवीन बादल के समान काले निर्दयी सर्प ने डसा ।
जिससे हमको उस तीव्र विष के चढ़ने से भारी मूर्छा आने लगी । आंख बन्द होने लगी । मति भ्रमित होने लगी । कार्याकार्य का ज्ञान जाता रहा । अपने आपको भूल जाने लगे । हितोपदेश सुनना भी अनुपयोगी हो गया । ऊचा नीचा दीखना बंद हो गया । उचित प्रतिपत्ति करने में रुक गये और समीपस्थ स्वजनों से बोलना भी बन्द हो गया। हम में से कितनेक तो कष्टवत् निश्च ेष्ट हो गये । कितनेक अव्यक्त शब्द घुरघुराते हुए जमीन पर लौटने लगे। कितनेक शन्य हृदय हो इधर उधर भटकने लगे। कितने तीव्र विष के प्रसार से अत्यन्त दाह