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दयालुत्व गुण पर
___ पश्चात् गुणधर राजा ने विजयवर्म नामक अपने भानजे को राज्य भार सौंप, जिनेश्वर के चैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव करवा कर कतिपय रानियों तथा पुत्र, पुत्री, सामंत और मंत्री आदि के साथ सुदत्त गुरु से दीक्षा ग्रहण की।
करुणा पूर्ण कुमार साधु ने सूरिजी को विनंती करो कि- हे भगवन् ! नयनावली को भी संसार समुद्र से तारिये ।
गुरु बोले कि- हे करुणानिधान ! वह इस समय कुठ से पीड़ित है, उसके शरीर पर मक्षिकाएँ भिनभिनाती हैं और लोग उसे दुत्कारते हैं। उसने प्रति क्षण रुद्र ध्यान में रहकर तीसरी नरक की आयुष्य संचित की है और उसे अभी दीर्घ संसार भटकना है। इसलिये धर्म पालन के लिए वह तनिक भी उचित नहीं है।
तब गाढ़ वैराग्य धर चारित्र पालकर अभयरुचि साधु तथा अभयमती साध्वी सहस्रार देवलोक में देवता हुए।
बाद करिसय याने कर्षण से सुशोभित क्षेत्र के समान करिशत याने सकड़ों हाथियों से सुशोभित इस भरत क्षेत्र में लक्ष्मी के संकेतगृह समान साकेतपुर नगर में पर्वत के समान सुप्रतिष्ठित और रूपशाली विनयधर राजा था। उसकी ब्रह्मा की जैसे सावित्री स्त्री विख्यात है वैसी लक्ष्मीवती नामक प्रिया ( रानी) थी। अब उस अभयरुचि का जीव सहस्रार देवलोक से च्यव कर सीप के संपुट में जैसे मोती उत्पन्न होता है वैसे उस रानी के उदर में उत्पन्न हुआ।.
प्रतिपूर्ण दिवस में सुस्वप्नों से सूचित होते पुण्य प्राग्भार पूर्वक मलय पर्वत को भूमि से चंदन के समान उसने नंदन (पुत्र) प्रसव किया । तब प्रियंवदा दासी के वचन से यह बात जानकर