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________________ कारण ऐसा कोई प्राणी नहीं रहता जिसको कोई आवश्यकता हो, क्योंकि प्राय: तमाम प्राणी विशिष्ट सुख संतोष वाले होते हैं; धर्म में तत्पर रहते हैं; तथा उस समय प्राणीगण परम करुणानिधान जिनेश्वर देवके योग से तत्त्वदर्शी-सत्यदर्शी बन जाते हैं । जिनेश्वरों की यह ही सबसे बड़ी महत्ता है । इसी कारण से तीर्थकर ही जगद्गुरु हैं, अन्य नहीं । व्यक्ति की महानता का मापदंड भी यह है कि उनके सद्भाव में सारा संसार सुख-संतोष एवं प्रसन्नता से भरा रहे, आवश्यकता का अभाव महसूस न हो, भगवान जिनेश्वर देवों की इसी विशिष्टता के कारण उनमें तीनों जगत् का परमगुरुत्व साहजिक रीति से सिद्ध होता है-[७-८] तीर्थकृद्दाननिष्फलतापरिहाराष्टकम [२७] कश्चिदाहास्य दानेन क इवार्थः प्रसिध्यति । मोक्षगामी ध्र वं ह्येष यतस्तेनैव जन्मना ॥१॥ भावार्थ-कोई ऐसा कहते हैं कि जगद्गुरु के दान से धर्म अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से कौनसा अर्थसिद्ध होता है ? अर्थात् एक भी नहीं; क्योंकि वे तो इसी जन्म में अवश्य मोक्ष में जाने वाले हैं-[१] उच्यते कल्प एवास्य तीर्थकृन्नामकर्मणः । उदयात्सर्वसत्त्वानां हित एव प्रवर्तते ॥२॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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