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________________ कहते हैं, उससे उस मूढमति के कथन में रहा हुआ न्याय का अंश यहां बताते हैं [४]. महादानं हि संख्यावदर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः। .. सिद्ध वरवरिकातस्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥५॥ भावार्थ-कोई भी आवश्यकता वाला न रहने के कारण परिगणित रहा हुआ जगद्गुरु तीर्थंकर देव का दान 'वरवरिका-मांगो, मांगो' ऐसे वचन से महादान रूप सिद्ध होता है और तुमने जिस आवश्यक नियुक्तिशास्त्र का प्रयोग संख्या जानने हेतु किया उसी शास्त्र की २१८, और २१६ वीं गाथाको गौरपूर्वक देख लिया होता तो तुम्हें यह पता चल जाता कि 'वरवरिका' का उल्लेख है [५]. तया सह कथं संख्या युज्यते व्यभिचारतः । तस्माद्यथोदितार्थं तु संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥ भावार्थ-वरवरिका के साथ संख्याका विसंवाद दीखने से वह घटता नहीं है, इसलिये यथाकथित आशयवाला अर्थात् अर्थी के अभाव वाले संख्याविधान को स्वीकारना चाहिये-[३]. महानुभावताप्येषा तद्भावे न यदर्थिनः । विशिष्टसुखयुक्तत्वात्सन्ति प्रायेण देहिनः धर्मोद्यताश्च तद्योगात्ते तदा तत्त्वदशिनः । महन्महत्त्वमस्यैवमयमेव जगदगुरुः ॥८॥ भावार्थ-महानुभावता भी यही है कि उनके सद्भाव में अर्थात् वे परमतारक पुरुष जहां तक होते हैं वहाँ तक उनके परम प्रभाव के ॥ ७ ॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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