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________________ जंन उपाश्रय के पास से निकल रहे थे। उस समय साध्वी याकिनी महत्तरा के मुख से निकलो एक प्राकृत-गाथा उनकी समझ में नहीं प्राई एवं वे तुरन्त अपनी प्रतिज्ञानुसार उनका शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए तैयार हो गए। साध्वी याकिनी महत्तरा ने उन्हें अपने गुरु प्राचार्य जिनभट से दीक्षा दिला दी पर हरिभद्रसूरिजी ने साध्वी याकिनी महत्तरा को सदैव अपनी धर्मजननी माना एवं अपने प्रत्येक ग्रन्थ में अपने लिए "याकिनीमहत्तराधर्मसूनु" विशेषण का प्रयोग किया। उनके दो भागिनेय हंस एवं परमहंस उनसे दीक्षित हुए पर वे धार्मिक असहिष्णुता के कारण बौद्धों के द्वारा मारे गए। प्रतिशोध की आग में जलते प्राचार्य ने १४४४ बौद्धों का संहार करने का संकल्प किया पर उनके गुरु ने उन्हें तीन गाथाएँ लिखकर भेजी एवं साधुधर्म की सहिष्णुता का उपदेश दिया। १४४४ बौद्धों के संहार के सकल्प का परिहार करने के लिए १४४४ ग्रन्थों की रचना करने का परामर्श गुरु ने दिया। हरिभद्रसूरि जी ने उनके आदेश का पालन किया । - श्री हरिभद्रसूरिजी के समय के विषय में दो मत प्रचलित है-- एक वि.सं. ५३० से ५८५ के आसपास का एवं दूसरा वि. सं० ७५७ से ८२७ का। मुनि जिनविजयजी ने समकालीन ग्रन्थों के उद्धरणों से उनका समय वि. सं० ७५७ से ८२७ के बीच निर्धारित किया है । इस समय में भारतवर्ष में चैत्यवासियों का बड़ा प्रभाव था व देव द्रव्य का अपने स्वयं के लिए प्रयोग कर रहे थे। तब इस प्राचार्य ने डंके की चोट अपने "संबोध प्रकरण" में कहा :
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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