SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावार्थ--मैथुन हमेशा राग के उदय से ही होता है, अतः मैयुन के सेवन में दोष कैसे अंसभव है ? इसी कारण शास्त्र में मैथुन के दोष का निषेध किया गया है । अभिप्राय यह है कि मैथुन में दोष संभव ही हैं, अतः शास्त्रोक्त दोषों का प्रभाव मानना अनुचित है--[१]. कितने ही महानुभाव कहते हैं कि शास्त्र-सम्मत अमुक प्रकार का मैथुन दोषयुक्त नहीं है इस कथन को चुनौती देते हुए ग्रन्थकार आचार्य श्री उत्तर देते : धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन यत्स्याद्दोषो न तत्र चेत् नापवादिककल्पत्वान्नै कान्ले नेत्यसङ्गतम् । वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्यदधीत्यैवेति शासितम् ॥२॥ ॥३॥ भावार्थ--धर्म अर्थात् पुण्य के लिये पुत्र की कामना वाला अधिकारी गृहस्थ स्वस्त्री के साथ ऋतुकाल में यथाविधि जो मैथुन सेवन करता है, उस मैथुन में दोष नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं है। वह मैथुन आपवादिक आचार रूप है उससे वह सर्वथा निर्दोष है ऐसा कहना पूर्णतः असंगत है । वेदों में वेद-पठन का अधिकार बताते हुए कहा है कि--स्त्रीसंग की इच्छा वाले को वेद का पठन करके स्नान करना चाहिये। 'अधीत्य'-'पठन करके' शब्द की व्याख्या करते हुए व्याख्याकार कहते हैं 'अधीत्येव' 'पठन करके ही' अर्थात् बिना पठन किये नहीं, मतलब कि वेद अध्ययन अनिवार्य है, मैथुन नहीं। इसी कारण से तो मैथुन को पापवादिक कहा है--[२-३].
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy