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________________ ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः स मृत्वा दुर्गतिं गतः। इत्थं दोषाकरो मद्यं विज्ञेयं धर्मचारिभिः ॥८॥ भावार्थ--कोई एक ऋषि ने महातप तपा। उससे भयभीत होकर इन्द्र ने ऋषि के विचलन हेतु सुर-सुन्दरियों को भेजा । सुर-सुन्दरियों ने वहां आकर विनयपूर्वक ऋषि को प्रसन्न करके उन्हें इच्छित वर देने हेतु तैयार करने के बाद ऋषि से वचन मांगा "आप शराब, हिंसा, अथवा मैथुन का सेवन करो।" सुन्दर देवांगनाओं के वचन को मानकर ऋषि ने हिंसा एवं मैथुन को नरक का रूप मानकर तथा अलग-अलग वस्तुओं के मिश्रण से तैयार होने वाले मद्य को शुद्ध कारण वाला समझकर मद्यपान किया, पश्चात् मद्योपभोग से उत्पन्न मद को शान्त करने हेतु एक बकरे का वध कर नष्टधर्मी उस ऋषि ने शराबपान, मांसभक्षण, एवं मैयुन-सेवन आदि सारे अनर्थ कर डाले और अनर्थों के कारण तपस्या को भ्रष्ट कर लिया। वह ऋषि मर कर दुर्गति में गया। इस रीति से धर्माचरण करने वाले महानुभाव शराब को दोषों की खान समझे--[४-५-६-७-८]. - -- मैथुनदूषणाष्टकम् [२०] रागादेव नियोगेन मैथुनं जायते यतः। ततः कथं न दोषोऽत्र येन शाने निषिध्यते ॥ १ ॥
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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