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तलस्पर्शी विश्लेषण भी किया है । साथ २ उसके रहस्यों को स्वपर शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया है । यह ग्रन्थ एक स्वाध्याय ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थपर विद्वच्छिरोमणि परमादरणीय परमपूज्य प्राचार्य भगवान् श्री जिनेश्वरसूरीश्वरजी की संस्कृत में सुन्दर, सुस्पष्ट, विस्तृत टीका है। मूल ग्रन्थकार महर्षि के गहन अर्थों की रस प्रचुर विवेचना टीका में है। पर संस्कृत भाषाविद् टीका के माधुर्यका रसास्वाद कर सकते हैं ।
यदि इस प्रकरण का भावानुवाद हिन्दी में हो जाय तो इस शास्त्र ग्रन्थ की स्वाध्यायसुधा सभी के लिये सुलभ बने । राष्ट्रभाषा में अष्टकजी के अनुवाद की मेरी तमन्ना को मैंने साकार करना प्रारंभ किया।
परमतारक, निष्कारण जमबन्धु, सर्वोपकारी, परमकरुणाकर भगवान् श्री जिनेश्वर परमात्मा, जंगमयुगप्रधानकल्प-जगद्गुरुतपागच्छाधिपति-सूरिचक्र चक्रवत्ति-राणकपुर-कापरडा शेरिला स्तंभ तीर्थ, कदंबगिरि, तालध्वजगिरि, मधुपुरी प्रमुखानेक प्राचीन तीर्थोद्धारक, सर्वतन्त्र स्वतंत्र, शासनसम्राट् प० पू० स्व० प्राचार्य भगवंत श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी म. सा. के साधिकसात लाख श्लोक प्रमाण नूतन संस्कृत साहित्य सर्जक, परमशासनप्रभावक पट्टप्रभाकर व्याकरण वाचस्पति, कविरत्न, शास्त्रविशारद, साहित्यसम्राट् स्व० ५० पू० गुरु भगवंताचार्यदेवेश श्रीमद विजयलावण्यसूरीश्वरजी म. सा., एवं सकलजन्तुहितकर जिनधर्म की कृपा का ही यह फल है कि इस शास्त्रग्रन्थ का भावानुवाद जल्दी हो गया।