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स्वकीयम्
सिरोही के २०२८ के चातुर्मास दरम्यान एक दिन अचानक ही 'श्री अष्टक प्रकरण' हाथ में आया। इस ग्रन्थ के लिये मेरे पूज्य तारक गुरुदेवश्री के श्रीमुख से अनेक बार प्रशंसा सुनी थी। अतः ग्रन्थ हाथ में पाते ही एकबार उसे आद्यन्त पढ़ लिया। इस ग्रन्थ को पढ़ते ही इस ग्रन्थ के ३२ प्रष्टकों में विभिन्न विषयों के रहस्योद्घाटनों ने मेरे मन को अत्यन्त प्रसन्न व प्रभावित किया।
प्रष्टक के रचनाकार १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता, याकिनीमहत्तरा धर्मसूनु, परमबहुश्रुत, प्रातःस्मरणीय प० पू० प्राचार्य भगवन्त श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी म० सा० को मैं बारंबार मनोमन भावभरी वन्दनाञ्जलि देता रहा । पता नहीं कितनी देर तक मैं इस परमतारक, आचार्यश्रेष्ठ के प्रति नतमस्तक होकर प्रशंसा करता रहा । मेरे ज्येष्ठ शिष्य वयोवृद्ध मुनिश्री प्रमोदविजयजी के साथ एक बार फिर अष्टक पढ़ा। पर मेरा मन न भरा । मैं इस ग्रन्थ के प्रति इतना आकृष्ट हुमा था कि इसे पुनः पुनः पढ़ा। • सचमुच श्री अष्टकप्रकरणकार महर्षि ने इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों को संकलित ही नहीं किया, वरन् उन २ विषयों का मार्मिक