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________________ विभिन्नं देयमाश्रित्य स्वभोग्याद्यत्र वस्तुनि । संकल्पनं क्रियाकाले तद्दष्टं विषयोऽनयोः ॥६॥ भावार्थ-अपने काम में लेने योग्य वस्तु से दूसरों को देने योग्य वस्तु अलग है' ऐसा संकल्प जिस वस्तु में, उसके बनाते समय करने में आता है, वह दुष्ट है; और यह ही उनका अर्थात् यावदर्थिक एवं प्रकृत पिंडका विषय सम्बन्ध या अर्थ है-[६]. स्वोचिते तु यदारम्भे तथा संकल्पनं क्वचित् । न दुष्टं शुभभावत्वात् तच्छुद्धापरयोगवत् ॥ ७ ॥ भावार्थ-अपने योग्य (पाकादि-रसवती) व्यापार अर्थात् प्रवृत्ति करते समय कभी कभी तथाप्रकारक-साधु को देने रूप जो संकल्प होता है, वह दूसरे (मुनिवंदन आदि) शुद्ध व्यापार अर्थात् प्रवृत्ति की भाँति चित्त की विशुद्धि-रूप होने से शुद्ध अर्थात् निर्दुष्ट है-[७]. दृष्टोऽसंकल्पितस्यापि लाभ एवमसम्भवः । नोक्त इत्याप्ततासिद्धियंतिधर्मोऽतिदुष्करः ।।८।। भावार्थ-पुनः असंकलित यानी जो साधु हेतु नहीं बनाया हुआ ऐसे (रात को बनाये हुये या सूतक आदि प्रसंगों पर पकाये हुये) पिंड की प्राप्ति भी दीखती है, उससे तुम्हारे कथनानुसार असंभवित पिंड का प्राप्तों अर्थात् सर्वज्ञों ने उपदेश नहीं दिया है। इसलिये ही सर्वज्ञ की सर्वज्ञता सिद्ध होती है। अलबत्ता-ऐसे असंकल्पित पिंड की प्राप्ति के प्रसंग कुछ ही होते हैं। इसलिये ही कहा है कि यति धर्म अति दुष्कर है-[८].
SR No.022134
Book TitleAshtak Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharvijay
PublisherGyanopasak Samiti
Publication Year1973
Total Pages114
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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