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________________ ( एश् ) कर्मणां निधनं विनाशो येन सः क्लृप्तकर्म्म निधनः ॥ सिद्धावस्थां प्राप्त इत्यर्थः ॥ १२ ॥ इति पूजायाः प्रस्तावः भाषाकाव्यः - वृत्त उपर प्रमाणे ॥ जो जिनंद पूजें मूलनसों, सुर नैन नि पूजा तिसु होइ ॥ वंदें नाव सहित जो जिनवर, वंदनीक त्रिभुवनमें सोइ ॥ जो जिन सुजस करें जन ताकी, महिमा इंद्र करें सुर लोइ ॥ जो जिनध्यान करंत बनारसि, ध्यावैं मुनी ताके गुंन जोइ ॥ १२ ॥ हवे चार श्लोकें करी गुरुनक्तिनुं द्वार कहे बे. ॥ वंशस्थवृत्तम् ॥ प्रवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते प्रवर्त्तयत्यन्यजनं च निःस्पृहः ॥ स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं दमः परम् ॥ १३ ॥ अर्थः- ( स्वहितैषिणा के० ) पोताना हितना वांक पुरुष ( सएव के० ) तेहीज ( गुरुः के० ) गुरु ( सेव्यः के० ) सेवन करवा योग्य बे. ते केवा गुरु सेवा योग्य बे ? तो के ( वयमुक्ते के० ) अवद्य जे पाप तेथ कि मुक्ते एटले मुकायेला एटले सत्य एवा (पथि के० ) मार्गने विषे ( यः के० ) जे `श्र्वद्य
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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