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________________ (६) वली पण जावपूजानुं फल कहे जे. ॥शिखरिणी वृत्तम् ॥ कदाचिन्नातंकः कुपित श्व पश्यत्यनिमुखम्, विदूरे दारिधं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् ॥ विरक्ता कांतेव त्यजति कुगतिः संगमुदयो, न मुंचत्यज्यर्ण सुहृदिव जिनाची रचयतः॥११॥ अर्थः-( जिनार्चा के० ) श्रीवितरागनी वंदनादि जावपूजाने ( रचयतः के० ) करता एवा पुरुषो. ने (आतंकः के०) नय, ते (कदाचित् के०) को व. खत पण (अनिमुखं के० ) सन्मुख ( न पश्यति के०) न जोवे बे. ते केनी पेठे ? तो के जेम कोइ (कुपितश्व के० ) कोश्नी उपर कोपायमान थयो होय ते तेनी सामुं न जोवे, तेनी पेठे श्राही पण जाणी लेवु.तथा (दारिज्यं के०) दारिज जे जे ते तेनाथी (अनुदिनं के०) निरंतर (विदूरे के०) घणेज दूर ( नश्यति के ) नासे , अर्थात् तेनाथी दारिद्य दूर जाय , केनी पेठे ? तो के ( चकितमिव के) ते दारिद्र्यय जाणीयें जयजीत थयुं होय नहिं ? तेनी पेठे. वली (कुगतिः के ) नरकादि पुर्गति,
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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