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________________ (७०) प्रवर्तते, ते नरा नवने स्वगृहे प्रोगतं उत्पन्नं कल्पवृदं प्रोन्मूख्य उत्खाय धत्तूरतरुंवपंति आरोपयंति । पुनस्ते जडाःमूर्खाः चिंतामणिरत्नं अपास्य त्यक्त्वा दूरीकृत्य काचशकलं काचखं; स्वीकुवते गृएहंति ॥ पुन स्ते जड़ा गिरीसदृशं पर्वतप्रायकायं उच्चं द्विरदं हस्तिनं विक्रीय रासनं गर्दनं क्रीणंति मूल्येन गृएहति ॥ अत्र कल्पवृक्षसहशोधर्मः। धत्तूरसहशा जोगाः एवं सर्वत्रोपनयः। जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय कल्पवृतचिंतामणिसदृशः श्रीजिनधर्म एवाराध्यः श्राराधयतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥६॥ __॥ नाषाकाव्यः-ज्यौं नरमूल उखारि कल्पतरु, बोवन मूढ कनकको खेत ॥ ज्यौं गजराज वेचि गिरिवरसम, क्रूर कुबुद्धि मोल खर लेत ॥ जैसे बमि रतन चिंतामनि, मूरख काच खंम मन देत ॥ तैसे धरम विसारी बनारसि, धावत अधम विषय सुख हेत ॥ ६॥ ___ कथाः-ए अर्थ उपर शशी सूरनो दृष्टांत कहे बेः-श्रा नरत देत्रमांहे शुक्तिमती नामा नगरीने
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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