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________________ (३४) (इदं के०) श्रा (उप्राप्यं के० ) सुःखें प्राप्त थावा योग्य एवं ( नरत्वं के०) मनुष्यपणुं, तेने (प्राप्य के ) पामीने ( यत्नेन के) उद्यमें करीने (धर्म के ) धर्मने ( न करोति के० ) न करे ने, (सः के) ते पुरुष, (क्लेशप्रबंधेन के० ) अति महेनतें ( लब्धं के०) पामेला (चिंतामणिं के) चिंतामणिने (अब्धौ के० ) समुअमां (प्रमादात् के०) श्रालस्य करीने (पातयति के०) नाखे बे. अर्थात् जे मूर्ख पुरुष मोहोटा कष्टें पमाय एवो मनुष्यजन्म पामीने सावधानतायें करीने श्रीवीतरागप्रणीत धर्मने न अंगीकार करे, तेणें अतिदुःखें मलेलो एवो प्रत्यद चिंतामणि प्रमादथकी समुषमा नाख्यो, एम जाणवू. ए कारण माटे नरनवें करीने धर्मनुं उपार्जन करवू. श्रा ठेकाणे ब्राह्मण रत्नछीपें देवीयें दीधेला चिंतामणिनुं समुषमां पातन कयुं, तेनो संबंध जाणवो. माटे हे नव्यजनो ! ए प्रकारे मनने विषे विवेक लावीने धर्मज करवो कारण के धर्मने विषेप्रीति करनारा सुजन पुरुषो तेने जे पुण्य उत्पन्न थाय. इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवो ॥४॥ टीका ॥ श्रथ नरजवस्य उर्लजत्वमाह ॥ यः
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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