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(३५०) सिके पंथा स्तत्र वेसरी अश्वतरीं । तन्नारवाहकां । तस्माहुजनावनामेव कुठवतु ॥७॥
नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ प्रसमके पोषवेकों, अमृतकी धारासम, ज्ञानवन सींचवेको नारि नीर जरी है ॥ चंचल करन मृग बंधवेकों वागुरा सी, काम दावानल नासिवेकों मेघऊरी है ॥ प्रबल कषाय गिरि जंजवेकों वज्रगदा, नौंसमुख तरवेकों पोढी महातरी है।मोखपंथ गाहिवेकों वेसरी बिलायतकी, ऐसी शुद्धनावनाप्रबंधढार ढरी है। ७ ॥
वली पण कहे . शिखरिणीवृत्तम् ॥ घनं दत्तं वित्तं जिनवचनमध्यस्तमखिलम, क्रियाकांमं च रचितमवनौ सुप्तमसकृत् ॥ तपस्तीव्र तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरम्, नचेच्चित्ते नावस्तुषवपनवत्सर्वमफलम् ॥ इति नावनाप्रक्रमः॥२०॥
अर्थः-(घनं के) घj ( वित्तं के०) अव्य, ( दत्तं के) पात्रजनने दीधुं, तथा ( अखिलं के०) समग्र ( जिनवचनं के०) जिनागमरूप शास्त्र (अ