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________________ (३३ए) रीसै ॥ ज्यौं प्रगटै नहिं जो लगि मारुत, तौं लगि घोरघटा नदि खीस ॥ त्यौं घटमें तपवज्र विना दृढ, कर्म कुलाचल और न पीसै ॥३॥ वली पण तपनो महिमा कहे जे. स्रग्धरावृत्तम् ॥संतोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरः स्कंधबंध प्रपंचः,पंचादीरोधशाखः स्फुरदनयदलः (स्फुटविनयदलः) शीलसंपत्प्रवालः॥श्रशांनः पूरसेकाधिपुलकुलबलैश्वर्यसौंदर्यनोगः, स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवसुखफलदः स्यात्तपः पादपोऽयम् ॥४॥ इति तपः प्रक्रमः॥२॥ अर्थः-(श्रयं के०) श्रा ( तपःपादपः के०) तपरूप जे वृद, ते (शिवसुखफलदः के०) शिवसुखना फलने देनारो ( स्यात् के० ) होय. ते केहवो तपःपादप डे ? तो के ( संतोषस्थूलमूलः के०) संतोष जे मू त्याग, तेज डे स्थूलमूल जेनुं एवो तथा (प्रशमपरिकरः के०) क्षमा तेज ने परिकर जेने एवो तथा ( स्कंधबंधप्रपंचः के० ) आचारादि जे श्रुतस्कंधरूप, तेनी बंध जे रचना ते रूप ले
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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