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________________ (३३७) त्तपसः त्रिदिवं स्वर्गः च पुनः शिवं मोदः स्वाधीनं स्वायत्तं स्यात्तत्तपः किं २लाध्यं न स्यात् ? ॥ २ ॥ नाषाकाव्यः-सवैय्या श्कतीसा ॥ जाके श्रादरत महारिछिसों मिलापहो, मदन अव्याप होश, कर्म वन दाहियें॥विधन विनास होइ गिरवान दास होश, ग्यानको प्रकास हो, नौं समुन थाहियें ॥ देव पद खेल होइ, मंगलसों मेल हो, इजिनकी जेल होश, मोखपंथ गाहियें ॥ जाकी ऐसी महिमा, प्रगट कहै कौरपाल, तिहुंलोक तिहुँ काल सो तपसराहियें॥७॥ कांतारं न यथेतरोज्वलयितुं ददोदवाग्निविना, दावाग्निं न यथेतरः शमयितुं शक्तोविनांनोधरम् ॥ निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्योययांनोधरम, कर्मोघं तपसाविना किमपरं हर्तु समर्थस्तथा ॥ ३ ॥ अर्थः- (यथा के०) जेम ( कांतारं के) वनने ज्वलयितुं के०) बालवाने ( दवाग्निविना के० ) दा. वाग्निविना ( इतरः के० ) बीजो ( दक्षः के०) माह्यो (न के ) नथी. वली ते ( दावाग्निं के० ) दावाग्मिने ( शमयितुं के० ) शमन करवाने ( अंजोध
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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