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________________ (३०) समता समेत, धरमके भूतकां सुखेत धन खरचै ॥५॥ वली पण दाननाज गुण कहे . मंदाक्रांतावत्तम् ॥ तस्यासन्ना रति रनचरी कीर्तिरुत्कण्ठिताश्रीः, स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्वशक्षिः॥ पाणी प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंप त्सप्तदोत्र्यां वपति विपुलं वित्तबीजं निजं यः ॥ ॥ इति दानप्रक्रमः ॥१७॥ अर्थः-(यः के० ) जे पुरुष, ( निजं के०) पोतार्नु ( विपुलं के०) प्रचुर एवं ( वित्तबीज के०) वित्तरूप बीजने ( सप्तदत्र्यां के०) सात क्षेत्रले विषे एटले १ जिनजुवन, २ जिनबिंब, ३ झानपुस्तक, ७ चतुरविध संघनक्ति, ते रूप सात देत्रने विषे ( वपति के ) वावे . एटले वापरे . ( तस्य के) ते पुरुषने ( रतिः के०) समाधि ( श्रासन्ना के) समीप वर्त्तवावाली थाय . ढकडी थाय . तथा तेने (कीर्तिः के०) कीर्ति ते (अनुचरी के०) दासी थाय जे. तथा (श्रीः के ) संपति एटले धनधान्य हिरण्यरूप संपत्ति, ते मलवाने
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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