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( २०६ ) ऽत्यंतगामी तं । पुनः किंभूतं ? इष्टे इष्टवस्तुनि यथाकामं स्वेaयावर्त्तते इति यथाका मिनस्तं । पुनः किंभूतं ? कुमते कुत्सितमते ध्वनीनः पांथस्तं । ईदृशं इंद्रियसमूहं श्रजयन् सन् श्रमनाग् जव ति ॥७२॥ यतः ॥ कुरंगमातंगपतंगजुंग, मीना हताः पंच जिरेव पंच ॥ एकः प्रमादी सकथं न हन्यते, यः सेवते पंच जिरेव पंच ॥ १ ॥ इति ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकी र्त्तिजिः॥ सूरि निर्विहितायां तु, इंद्रियप्रक्रमोऽजनि ॥ १६॥
जाषाकाव्यः - वृत्त ऊपरप्रमाणें ॥ धर्म तरु जंजनकों महामत्त कुंजरसें, यापदा जंमार के जरनकों करोरी हैं | सत्यशील रोकवेकों पौढै परदार जैसें, दुर्गतिको मारग चलायवेकों धोरी हैं । कुमतिके अधिकारी कुनय पथके विहारी, जडजाव इंधन जरायवेकों होरी है ॥ मृषाके सहाइ दुर्भावनाके नाइ, ऐसे विषया जिलाषी जीव के अघोरी है ॥ ७२ ॥
कथा: - इंद्रियदमन उपर कथा कहे बे. जरतक्षेत्र विशालानगरमां चेडो नामें राजा राज्य करे बे. ते परम जिनधर्मी वे, तेने सातपुत्री मां सुज्येष्ठा तथा चेला एवे नामें बे पुत्री बे. तेने मांहोमांहे घणो स्नेह बे, ते जेम के शयन, जोजन, स्नान,