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________________ (२३) जियवात ? तो के (श्रेयःपुंजनिकुंजनंजन के० ) पुण्य समूहरूप जे वन तेना नंजनननेवीषे (महावातं के0) विटोलीया जेवो ॥१॥ टीका:-धत्तामिति ॥ हे साघो! नवान् मौनं धत्तां कुरुतां। पुनः श्रगारं गृहं उज्जतु त्यजतु। पुनर्विधिप्रागदत्यं सर्वाचारचातुर्य अन्यस्यतां कुर्वतु । अंतगणं गरवासमध्ये अथवा अंतर्वण मितिपाठे वनमध्ये श्रस्त जवतु । पुनरागमश्रमं सिद्धांतपठनं उपादत्तां अंगीकुरुतां । पुनस्तपस्तप्यतां करोतु। परं चेद्यदि इंजियवातं इंडियसमूहं जेतुं वशीकर्तुं नावैति न जानाति । तदा सर्वं पूर्वानुष्ठानं जस्मनि रदायां हुतं वृथा जानीत । कथंनूतं इजियनातं । श्रेयसां कल्याणानां पुंजएव निकुंज तस्य नंजने महावातं वातूलसमानं ॥१॥. जाषाकाव्यः-वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ मौनके धरैया, गृह त्यागके करैया, विधि रीतिके सधैया, परनिंदासों अपूठे हैं ॥ विद्याके श्रन्यासी, गिरिकंदरा के बासी,शुचि अंगके श्राचारी,हितकारी बैन वठे है। श्रागमके पाठी, मन लाय महा काठी, जारी कष्टके सहनहार, रमाहूंसों रूठे है ॥ इत्यादिक जीव,
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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