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________________ (२१५) घणा घणा जव पर्यंत जम्यो. एम जाणी नविकजीवें परिग्रहनी विरति करवी ॥ इति परिग्रहविषे मम्मण कथा समाप्ता ॥४४॥ हवे क्रोधजयने माटें उपदेश कहे . यो मित्रंमधुनो विकारकरणे संत्राससंपादने, सर्पस्य प्रतिबिंबमंगददने सप्तार्चिषः सोदरः ॥ चैतन्यस्य निषूदने विषतरोः सबह्मचारी चिरं, स, क्रोधः कुशलानिलाषकुशखैः प्रोन्मूलमुन्मूल्यताम् ॥४५॥ अर्थः- हे लोको ! (कुशलाजिलाषकुशलैः के०) पोताना जीवना श्रेयनी वांगमां चतर एवा परुषोयें (सः के०) ते (क्रोधः के०) क्रोध, (प्रोन्मूलं के०) समूलथीज जेम होय तेम (उन्मूस्यता के०) उन्छेदन करवो, ते क्रोध केहवो ? तो के (यः के०) जे क्रोध, (विकारकरणे के०)चित्तादिने विकारना करवामां (मधुनः के०) मद्यनो (मित्रं के०) मित्र. वलीजे क्रोध, (संत्राससंपादने के०) संत्रास मेलववामांएटले नय उत्पन्न करवामां (सर्पस्य के०) सर्पनो ( प्रतिबिंब के० ) प्रतिबिंबरूप अथवा
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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