________________
(१एए) लोपि के०) पुष्ट गज पण (अश्वति के) अश्वतुल्य थाय . तथा (पर्वतोऽपि के) पर्वत पण ( उपलति के०) परसदृश थाय . अने ( दवेडोपि के०) विष पण (पीयूषति के०) अमृततुल्य थाय . तथा (विनोऽपि के) अंतराय पण एटले श्रापत्तियो पण (उत्सवति के०) उत्सव तुल्य थाय ने तथा (थरिरपि के०) शत्रु पण (प्रियति के०) प्रियसमान थाय . तथा (अपांनाथोपि के०) समुज पण (क्रीडातडागति के०) क्रीडाना तलावनी तुल्य थाय . (अटव्यपि के०) अरण्य पण (स्वगृहति के०) पोताना घरसमान थाय . अथोत् मनुष्यने शीलप्रनावथका पूर्वोक्त फुःख सर्व सुखरूप थाय ॥४०॥ श्रा ठेकाणे दृष्टांतमा सुदर्शनश्रेष्ठीनी तथा वंकचूलनी तथा रा. वणनी कथा जाणवी ते प्रसिङमाटें थाहिं लखीन. थी.श्रा थाउमो शीलनो प्रक्रम संपूर्ण थयो॥इति॥
टीकाः-पुनः शीलप्रजावात् इह लोकेपि कष्टानि यांतीत्याह ॥ तोयत्यनिरिति ॥ नृणां मनुष्याणां ध्रुवं निश्चितं शीलप्रजावात् अग्निरपि तोयति तोयमिवाचरति जलवत् शीतलं स्यात् । तथा अहिर