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________________ ( १४१ ) राज्यपिं ग्राह्य बे. वली श्रधाकर्मी तथा साहामो आयो ते पण अग्राह्य बे. एवी वाणी सांजली जरत पश्चात्ताप करवा लाग्यो, तेवारें जगवान् बोब्या के हे राजेंद्र ! तुं संतोष म कर, पहेलुं पात्र वीतराग, बीजुं पात्र साधु, त्रीजुं पात्र अणु व्रतधारी अने चोथुं पात्र दर्शनधर, माटें तुं अणुव्रतधारी श्रावकनी जक्तिकर, जेथकी संसाररूप समुद्र चुलूक समान थाय. एवं सांजली जरत राजा हर्ष पायो को स्वस्थानकें श्राव्यो. श्रावकमात्रने ज मवा माटें नोतरां दीघां निरंतर सर्वलोक जमवा आवे. केम के ते वखतें लोक सर्व रुजु जड हता. माटें हरहमेश यावा लाग्या, तेवारें रसोई करनारायें राजाने विनव्यो के महाराज ! प्रजा सर्व उलटी पड़ी बे, केदने जमाडीयें छाने केहने न जमाडीयें ! तेवारें राजायें परीक्षा करी शुद्ध श्रावकने ज्ञान, दर्शन छाने चारित्ररूप त्रण रेखा कांगणीरत्नथी कीधी. एम करी अवतार सफल करवा लाग्यो. तथा श्रीशत्रुंजयनो प्रथम उद्धार कस्यो, संघवीनी पदवी पाम्यो. वली अष्टापद पर्वत उपर कृषनदेव प्रमुख श्रागामी कालें घनारा चोवीश ति
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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