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(१०ए) धम्मजागरियं वा जागरित्तए ॥ णो सेकप्पश्अणापुबित्ता ॥ निकु श्वेद्या अन्नायरं तवो कम्म उवसंपजित्ताणं विह रित्तए ॥ तं चेव सत्वं ॥ नणियत्वं जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीगुरुसेवा कर्त्तव्या॥कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ इति ॥ १६ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, गुरुसेवन, प्रक्रमः ॥२॥ इति गुरुसेवनप्रक्रमः ॥२॥
नाषाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ ध्यान धारन ध्यान धारन, विषै सुख त्याग ॥ करुना रस आदरन, नूमिशयन इंघिय निरोधन ॥ व्रत संयम दान तप नगति नाव सिहंत सोधन ॥ ए सब काम न श्रावही, ज्या बिनु नायक सैन ॥ सिवसुख देत बनारसी, करु प्रतीत गुरु बैन ॥ १६॥ ___ कथाः-शहां गुरु सेवानो करनार मोड़ जाय. तेनी उपर श्रीगौतमस्वामीनी कथा कहे बेः-एकदा प्रस्तावें श्रीवर्धमान स्वामी व्याख्यान करतां करतां उपदेश दीधो, जे अष्टापदपर्वत उपर जरतचक्रवर्तीनी करावेली मानोपेत चोवीश तीर्थकरनी