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________________ (एए) धरदि शुनपंथ मग॥पर उपगार निमित्त, वखानदि मोख मग ॥ सदा अवंडित चित्त जु, तारन तरन जग ऐसे गुरुकों सेवत, नागहिं कर्म खग ॥१३॥ ___वली फरीने पण गुरुसेवानुं फल कहे जे. ॥ मालिनीटत्तम् ॥ विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थम् , सुगतिकुगतिमाग्! पुण्यपापे व्यनक्ति ॥ अवगमयति कृत्याकृत्यनेदं गुरुयो, नवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥१४॥ अर्थः-हे जव्यजनो ! ( तं विना के०) ते गुरु विना बीजो ( कश्चित् के) को पण, (जवजलनिधी के०) संसाररूप जे समुज तेने विषे ( पोतः के० ) नावसमान (नास्ति के०) नथी. अर्थात् संसारसमुद्र तरवामां नावसमान गुरु विना बीजो कोश् नथी. ते गुरु कहेवा ? तो के ( यः के) जे (गुरुः के0 ) गुरु, ( कुबोधं के०) कुत्सित बोध ते कुत्सितज्ञान जे मिथ्यात्व, तेने ( विदलयति के) विशेषे करी नाश करे . वती जे गुरु ( आगमार्थ के) सिमांतोना अर्थने (बो
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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