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झाणेणिच्चन्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । णाणगुण मुणियासारो सोझाइ सुनिच्चलमई ओ ॥३१॥
अर्थः-श्रुतज्ञान में हमेशा प्रवृत्ति रखना, (उसके द्वारा) मन को ( अशुभ व्यापार रोककर ) धरिण कर रखे, (सूत्र व अर्थ की) विशुद्धि करे। 'च' शब्द से भवनिर्वेद का अभ्यास करे और ज्ञान से जीव अजीव के गुणपर्याय के सार परमार्थ को जाने । (अथवा ज्ञान गुण से विश्व के सार को समझे।) उसके बाद अतिशय निश्चल बुद्धि वाला बनकर ध्यान करे।
( मुर्दे सा) रहता था वह अब स्थिर, शान्त तथा सशक्त बन जाता है।
यह परिस्थिति खड़ी करने के लिए ज्ञानादि भावना का अभ्यास करना चाहिये। इससे यह स्पष्ट है कि आगे कही जाने वाली ज्ञानादि भावनाओं की प्रक्रिया का आचरण करने से आत्मा ज्ञानादि से भावित होता जाना चाहिये, मन रंगता जाना चाहिये। भावित करे इसलिए भावना। ऐसे ज्ञानादि से भावितता आती जाती है। ज्ञानादि का ऐसा रंग चढता जाता है इसका प्रमाण यह है कि जीव को मिथ्या ज्ञान, आहार, विषय, परिग्रह और कषायों का रंग हलका होता जाय, उतर जाय। फिर ये चीजें मन को ध्यान में से खींच नहीं सकें, हटा नहीं सकें। जिसका रंग नहीं, मन को उसका आकर्षण भी नहीं।
ज्ञान भावना : पांच अब पहले ज्ञान भावना का स्वरूप और उसका गुण बताते हुए कहते हैं:विवेचन: