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________________ जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह. ८३ ९० एकेंद्रीया जीव विशेषाहीया ९१. तिर्यच जीव विशेषाहीया ९२ मिथ्यादृष्टी जीव विसेषाहीया ९३ अवरति जीव विसेषाहीया ८९ वनस्पति जीव विसेषाहीया | ९४ सकसाया जीव विसेषाहीया ९५ छदमस्त जीव विसेषाहीया ९६ सजोगी जीव विसेषाहीया ९७ संसारिक जीव विसेषाहीया ९८ सर्व्व जीव विसेषाहीया इतिश्री अठाणुं बोलनो अल्प बहुत्व संपूर्ण अथ श्री छ आराना बोल. दशक्रोडा क्रोडि सागरोपमना छआरा जाणवा, तेहमां पहेलो आरो ४ क्रोडाक्रोड सागरोपमनो जाणवो. ए आरो सुसम सुसम - नामा जाणवो. एकलुं सुखमां सुख जाणवु. ए आराने विषे ३ गाउनुं देहमान अने ३ पल्योपमनुं आउखं. उत्तरते आरे २ गाउनुं. देहमान अने २ पल्योपमनुं आउखु जाणवु. ए आरे बसेनेछपन पांसली, उतते आरे एकसो ने अठाविस पांसली जाणवी. ए आराने विषे, वज्र रुषभनाराच संघयण ने समचउरंस संठाण जाणवुं. स्त्री पुरुषना रूप सोभाग्य घणा दिपे. ए आराने विषे अठम भक्ते आहारनी इच्छा उपजे. तेवारे शरीर प्रमाणे आहार करे. धरतिनी सरसाइ साकर सरखी जाणवी. उतरते आरे खांड सरखिजाणवि, ए आराने विषे दश प्रकारना कल्पवृक्ष मनवंछीत मुख पहोचाडे ते कल्पवृक्षनां नाम, गाथा कहे छे. मतंगायभिंगा तुडियंगा दिव जोइ चित्तगा चित्तरसा मणवेगा गिरगारा अणियगणाउं १. ए गाथा सूत्र पाठे कही तेनो अर्थ कहे छे. मतंगाय कहेता मिठा मधुरा रसना कल्पवृक्ष थइ आवे, भिंगा कहेता रत्नजडाव भाजनंना कल्पवृक्ष थइ आवे. तुडियंगा कहेता गणपचास जातिनां वाजिंत्रना क० थ०
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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