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________________ गुणस्थानद्वार. समयांतर अविछिन्नपणे शुद्ध प्रणमे माटे सजोगी केवलिगुणठाणुं कहिये. हवे चउदU अजोगी केवली गुणठाणुं तेहर्नु | लक्षण.? शुकलध्यानना चौथो पायो समुछिन्नक्रिय, अनंतर अप्रतिपाती, अनिवृतिध्याता मनजोग रुधि, वचनजोग रुधि, कायजोग रुधि, आन प्राण निरोध करि, रुपातित परमशुकलध्यान ध्याता. ७ बोलसहित विचरे, तेरमे १० बोल कह्या तेहमांथि सजोगी, सलेशी, शुफल लेशी, ए त्रण वर्जीने शेष ७ बोलसहित सकल गिरीना राजा मेरु तेहनि परे अडोल अचल स्थिर अवस्थाने पामे शैलेशी पणे रहि पंचलघु अक्षर उच्चार प्रमाण काल रहि. शेष वेदनीय, आयुष, नाम, गोत्र, ए ४ कर्म क्षीण करिने मुक्तिपद पामे. शरिर उदारिक, तेजस, कार्मण सर्वथा छांडिने समश्रेणि रुजुगति अन्य आकाशप्रदेशने न अवगाहतो अणफरसतो एक समय मात्रमा उर्द्धगति अविप्रहगतिये तिहां जाय. एरंडबीज बंधन मुक्तवत्, निर्लेप तुंबिवत्, कोदंड मुक्तबाणवत्, इंधनवनिमुक्तधुम्रवत् तिहांसिद्धक्षेत्रे जइ साकारो पयोगे सिद्ध थाय. बुद्ध थाय. परांगत थाय. परंपरगत थाय. सकल कार्य अर्थसाधि कृतकृतार्थ निष्ठितार्थ अतुल सुखसागर निर्मग्न सादिअनंत भागे सिद्ध थाय, ए सिध्ध पदनो भावस्मरण चिंतन मनन कदा काले मुझने होशे? शो घटि पल धन्य सफल होशे. हवे अजोगी ते जोगरहित केवलसहित विचरे तेहने अजोगी केवली गुणठाणुं कहिये. इति लक्षण गुणद्वार बीजो संपूर्ण २. हवे त्रिजो स्थितिद्वार कहे छे. पहेला गुणठाणानि स्थिति ३ प्रकारनि छे. अणादिया अपज्जवसिया ते जे मिथ्यात्वनि आदि नथि ने अंतपण नयि ते अभव्यजीवना मिथ्यात्व आश्रि१ अणादिया सपज्जवसिया ते जे मिथ्यात्वनि आदि नथि पण अंतछे ते भव्यजीवना मिथ्यात्व आश्रि,
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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