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________________ जैन सिद्धांत प्रकरण संग्रह. परे नास्ति नयिः१. द्रव्यप्रमाणे ते सिद्ध अनंता छे,अभव्य जीवथी अनंतगुणा अधिक छे, वनस्पति वजिने २३ दंडकथी जीव अनंतगुणा अधिक छे २. क्षेत्रद्वार ते सिद्धशिला प्रमाणे छे, ते सिद्धशिला पिशतालिस लाख जोजननी लांबि पहोलि छे, अने त्रिगुणि झाझेरि परिधि छे अने उंचपणे ३३३ धनूष ने ३२ आंगुलप्रमाणे एटला क्षेत्रमा सिद्ध रह्या छे ३. स्पर्शना द्वार ते सिद्धक्षेत्रथि कांइक अधिकी सिद्धनिस्पर्शना छे ४. कालद्वार ते एक सिद्ध आश्रि सादिअनंत सर्व सिद्ध आश्रि अनादिअनंत ५. अंतरद्वार ते फरि सिद्धने संसारमा अवतरवु नथि अने एक सिद्ध तिहां अनंता सिद्ध छे अने अनंता सिद्धतिहां एक सिद्धछे,एटले सिद्ध सिद्धमां अंतर नथि६.भागद्वार ते सघला जीवने सिद्धनांजीव अनंतमे भागे छे,लोकने असंख्यातमे भागे छे ७. भावद्वार तेसिद्धमां क्षायकभाव, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायकसमकित छे अने परिणामिकभाव ते सिद्धपणुं जाणवू ८. अल्प बहुत्व द्वार ते सर्वथि थोडा नपुंसक सिद्ध,तेथि स्त्री संख्यातगुणिसिद्ध, तेथि पुरुष संख्यातगुणा सिद्ध, एक समये नपुंसक १० सिद्ध थाय, स्त्री २० सिद्ध थाय, पुरुष १०८ सिद्ध थाय. सपणे, बादरपणे, संज्ञिपणे, वज्ररूषभनाराचसंघयणपणे, शुकलध्यानपणे, मनुष्यगति, क्षायकसमकित, जथाख्यातचारित्र, पंडितवीर्य, केवलज्ञान, केवलदर्शन, भव्य सिद्धिक, परमशुकललेशी, चरमशरीरि, ए १४ बोलनो धणि हेायते मोक्ष जाय, जघन्य बे हाथनि अवघणावाला, उत्कृष्टि पांचशे धनुषनि अवघेणावाला, जघन्य नव वरसनो उत्कृष्ट पूर्वकोडिना आयुषवालो कर्मभूमिनो होय ते मोक्षमां जाय ९. इति मोक्षतत्वं. इति नव तत्वना बोल संपूर्ण.
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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