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________________ नियंठाना बोळ. केवळी ते, सम्यक् शुद्ध निर्दोष | कल्प, कल्पातित ए पांच तेमां ज्ञान दर्शनना धरणहार अरहाजी- स्थितिकल्प अस्थिति कल्पमां ने ते रहस्य छानी वात नहीं ते ६ ए नियंठा लाभे. जिनकल्पराग द्वेषना जीतनार माटे केवळी मांही बीजो, त्रिजो, चोथो ए३ कहीये अपरीसावी ते नवा कर्म नियंठा लाभे. स्थिवर कल्पमा आवे नही ते माटे अपरीसावी सर्व आगल्या ४ नियंठा लाभे. कयोगनारुंघवाथी.ए नामनी प्रज्ञा- ल्पातितमां उपल्या ३ नियंठा पनापरुपणाद्वारकिंचित् निरुपणं. लाभ ए द्वार ४ थो. २ वेद द्वार आगला ४ सवेदी ५. चारित्र द्वार. सामायक उपल्या २ अवेदी. तेमां पुलाक, ने छेदोपस्थापनीय ए २ मां स्त्रि वेदमां नहि. पुरुष अने पु- आगल्या ४ नियंठा लाभे. परिरुष नपुंसक ए २ मां होय. बकुस हार विशुद्ध ने सुक्ष्म संपराय . ने प्रतिसेवना ३ वेदमां होय, क- ए २ मां कषाय कुशिल नियंठो षाय कुशील सवेदी होय तो त्रणे लाभे. जथाख्यात चारित्रमा उवेदमां होय अने अवेदी होय पल्या २ नियंठा लाभे. ए ५. तो उपसम ने क्षीण वेदमां होय. ६.प्रतिसेवी द्वार.आगल्या निग्रंथ उपसम ने क्षीण वेदमां ३ नियंठा प्रतिसेवी. उपल्या होय. स्नातक क्षीण वेदमां होय ३ नियंठा अप्रतिसेवी तेमां पुए द्वा० २. | लाक मूळ गुण उत्तर गुणमां दोष ३. रागद्वार आगल्या ४ लगाडे. प्रतिसेवना मूळ गुण नियंठा सरागी. निग्रंथ ने सना- उत्तर गुणमां दोष लगाडे. बकुस तक क्षीणरागी होय ए ३. मुल गुणमां दोष लगाडे पति ४. कल्पद्वार. स्थितिकल्प, सेवना मूळ गुण उत्तर गुणमां अस्थितिकल्प,जिनकल्प,स्थिवर- दोष लगाडे उपल्या ३ नियंठा
SR No.022129
Book TitleJain Siddhant Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAjramar Jain Vidyashala
Publication Year1928
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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