SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ ] तपः कुलकम् पूर्व में शिवकुमार के भव में बारह वर्ष पर्यन्त आयंबिल तप करके उसके प्रभाव से जंबुकुमार को ऐसा अद्भुद रूप मिला कि उसको देखकर (श्रेणिक) कोणिक राजा भी विस्मित हो गया ।। १६ ॥ जिणकप्पित्र परिहारिश्र, पडिमापडिवनलंदयाईणं । सोऊण तव सरूवं, को श्रन्नो वहउ तवगव्वं ॥१७॥ जिन कल्पी, परिहार विसुद्धि, प्रतिमाप्रतिपन्न एवं यथालंदी साधुओं का उग्र तप देख कर क्या अन्य तपस्वी स्वयं के तप का गर्व कर सकता है ? ॥१७॥ मासद्धमासखवयो, बलभद्दो रूववं पि हु विरत्तो। सो जयउ रराणवासी, पडिबोहिश्र सावय सहस्सो ॥१८॥ अत्यन्त स्वरूपवान् होने पर भी अरण्य में रहने वाले, जिन्होंने सहस्रों श्वापद पशुओं को प्रतिबोध दिया वे मास तथा अर्द्ध मास की तपश्चर्या करने वाले बलभद्र मुनि जयवन्ता वर्ते ॥१८॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy