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________________ वराग्यरग कुलकम् [ १९७ अर्थ--अथवा विषयों विषम है तथा स्त्रियां प्रायः करके चंचल होती है, इसलिये तू उसका आलिंगन स्पर्श मतकर क्योंकि यह अनेक चेष्टाओं द्वारा चित्त चुरा लेती है ।।१८।। ता तासि को दोसा, जइ अप्पा हु विसय विमविमुहो। ता न हु कीरइ ताहिं, विवसो कइ प्रावि नियमेण॥११॥ अर्थ-किन्तु इसमें स्त्री का क्या दोष है ? क्योंकि आत्मा स्वयं विषयों के विष से आक्रान्त होता है तो तू उस आत्मा को ही विषयरूपी विष से विमुख कर। जिससे वह स्त्रीकदापि निश्चयपूर्वक तुमको अंशमात्र भी विवश--परवश नहीं कर सकती ।। १६ ।। जे थूल भद्दपमुहा साहुय सुदंसणाइसिट्ठिवरा। थिर चित्ता तेसि कय किच्चा हि अईव थुत्तीहि ॥२०॥ ___ अर्थ-हे भव्य ! स्थूलभद्र आदि जैसे मुनिओं और सुदर्शन आदि जैसे श्रेष्ठिओं (ब्रह्मचर्य में) स्थिर चित्त वाले अनुपम हो गये है उनकी स्तुति करके कृतकृत्य होना चाहिए ।।२०।। केवि य इह का पुरिसा रुझाए महिलिग्राइ पाएण। ताडिज्जंता वि पुणो चलणे लग्गंति कामंधा ॥२१॥ अर्थ-संसार में ऐसे भी कितने ही कापुरुष (कुत्सित जनो) विद्यमान है जो स्त्रियों के पावों से ठुकराये जाने पर
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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